राम कथा की उत्पति तथा विकास
भारतीय परम्परा का कालजयी महाकाव्य रामायण, देश की भावनात्मक
सांस्कृतिक एकता का बुनियादी सूत्र है। रामायण भारतीय सामाजिक जीवन के मूल्यों का
आधार तथा लोक स्मृति के आदि ग्रंथों में से एक है। यह उन दुर्लभ आख्यानों में
असाधारण है जिसने भारतीय जनजीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया है। भारतीय कला
परम्परा में संगीत, नृत्य, लीला,
नाटय, चित्र, मूर्ति आदि
अनेक कला माध्यमों में रामायण की आधार भूमि लेकर एक समृध्द सांस्कृतिक परम्परा का
निर्माण हुआ है।
रामकथा शताब्दियों से भारतीय जनमानस से जुड़ी हुई है, और इसीलिए भारतीय
लोक-जीवन का अभिन्न अंग भी है। जहाँ-जहाँ भी भारतीय हैं वहाँ-वहाँ किसी न किसी रुप
में रामकथा प्रचलित है।भिन्न-भिन्न तरह से गिनने पर रामायण तीन सौ से लेकर एक हजार
तक की संख्या में विविध रूपों में मिलता है। इनमें से संस्कृत में रचित वाल्मीकि
रामायण सबसे प्राचीन माना जाता है।
राम के बारे में अधिकारिक रूप से जानने
का मूल स्त्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण
वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम कथा केवल वाल्मीकि रामायण तक
सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी चार स्थलों- रामोपाख्यान, आरण्यकपर्व, द्रोण पर्व
तथा शांतिपर्व-पर वर्णित है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएं उपलब्ध हैं। रामायण से
थोडा भिन्न होते हुए भी वे इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा
संबंधी कई ग्रंथ लिखे गए, जिनमें मुख्य हैं- विमलसूरि कृत
पदमचरित्र (प्राकृत), रविषेणाचार्य कृत पद्म पुराण (संस्कृत),
स्वयंभू कृत पदमचरित्र (अपभ्रंश), रामचंद्र
चरित्र पुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परंपरा के अनुसार राम का
मूल नाम पदम था।
दूसरे, अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गई।
हिंदी में कम से कम 11, मराठी में 8, बंगला
में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उडिया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में
लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया।
इसके अतिरिक्त भी संस्कृत, गुजराती, मलयालम,
कन्नड, असमिया, उर्दू,
अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गई।
महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति,
राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ,
सोमदेव, गुणादत्त, नारद,
लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, गुरु गोविंद सिंह, समर्थगुरु
रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों ने,
संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के
बारे में काव्यों/कविताओं की रचना की है।
विदेशों में
भी तिब्बती रामायण, पूर्वी
तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण,
जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी
रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा
(म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेनआदि
रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि
ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस
की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है।
कुछ भारतीय विद्वान कहते हैं कि यह ६००
ईपू से पहले लिखा गया। उसके पीछे युक्ति यह है कि महाभारत जो इसके पश्चात आया
बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन,
शैव, पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है।
अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिये। भाषा-शैली से भी यह पाणिनि
के समय से पहले का होना चाहिये।
रामायण का पहला और अन्तिम कांड संभवत:
बाद में जोड़ा गया था। अध्याय दो से सात तक ज्यादातर इस बात पर बल दिया जाता है कि
राम विष्णु के अवतार थे। कुछ लोगों के अनुसार इस महाकाव्य में यूनानी और कई अन्य
संदर्भों से पता चलता है कि यह पुस्तक दूसरी सदी ईसा पूर्व से पहले की नहीं हो
सकती पर यह धारणा विवादस्पद है। ६०० ईपू से पहले का समय इसलिये भी ठीक है कि बौद्ध
जातक रामायण के पात्रों का वर्णन करते हैं जबकि रामायण में जातक के चरित्रों का
वर्णन नहीं है।
रचनाकाल
रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता
है। भारतीय कालगणना के अनुसार समय को चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग
एव कलियुग। एक कलियुग ४,३२,००० वर्ष का,
द्वापर ८,६४,००० वर्ष का,
त्रेता युग १२,९६,०००
वर्ष का तथा सतयुग १७,२८,००० वर्ष का
होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम ८,७०,००० वर्ष (वर्तमान कलियुग के ५,२५० वर्ष + बीते
द्वापर युग के ८,६४,००० वर्ष) सिद्ध
होता है । बहुत से विद्वान इसका तात्पर्य इसा पू।
८,००० से लगाते है जो आधारहीन है। अन्य विद्वान इसे
इससे भी पुराना मानते हैं।
रामकथा का
इतिहास
तुलसीदास जी
के अनुसार सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को
सुनाया था। जहाँ पर भगवान शंकर पार्वती जी को भगवान श्री राम की कथा सुना रहे थे
वहाँ कागा (कौवा) का एक घोसला था और उसके भीतर बैठा कागा भी उस कथा को सुन रहा था।
कथा पूरी होने के पहले ही माता पार्वती को ऊँघ आ गई पर उस पक्षी ने पूरी कथा सुन
ली। उसी पक्षी का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि[घ] के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि जी ने यह
कथा गरुड़ जी को सुनाई। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा
अध्यात्म रामायण के नाम से प्रख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का सर्वप्रथम
रामायण माना जाता है।
हृदय परिवर्तन
हो जाने के कारण एक दस्यु से ऋषि बन जाने तथा ज्ञानप्राप्ति के बाद वाल्मीकि ने
भगवान श्री राम के इसी वृतान्त को पुनः श्लोकबद्ध किया। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा
श्लोकबद्ध भगवान श्री राम की कथा को वाल्मीकि रामायण के नाम से जाना जाता है।
वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है तथा वाल्मीकि रामायण को आदि रामायण के नाम से भी
जाना जाता है।
देश में विदेशियों की सत्ता हो जाने के
बाद देव भाषा संस्कृत का ह्रास हो गया और भारतीय लोग उचित ज्ञान के अभाव तथा विदेशी
सत्ता के प्रभाव के कारण अपनी ही संस्कृति को भूलने लग गये। ऐसी स्थिति को अत्यन्त
विकट जानकर जनजागरण के लिये महाज्ञानी सन्त श्री तुलसीदास जी ने एक बार फिर से
भगवान श्री राम की पवित्र कथा को देसी भाषा में लिपिबद्ध किया। सन्त तुलसीदास जी
ने अपने द्वारा लिखित भगवान श्री राम की कल्याणकारी कथा से परिपूर्ण इस ग्रंथ का
नाम रामचरितमानस रखा। सामान्य रूप से रामचरितमानस को तुलसी रामायण के नाम से जाना
जाता है।
कालान्तर में भगवान श्री राम की कथा को
अनेक विद्वानों ने अपने अपने बुद्धि,
ज्ञान तथा मतानुसार अनेक बार लिखा है। इस तरह से अनेकों रामायणों की
रचनाएँ हुई हैं।
तुलसीदास जी
के अनुसार सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को
सुनाया था। जहाँ पर भगवान शंकर पार्वती जी को भगवान श्री राम की कथा सुना रहे थे
वहाँ कागा (कौवा) का एक घोसला था और उसके भीतर बैठा कागा भी उस कथा को सुन रहा था।
कथा पूरी होने के पहले ही माता पार्वती को ऊँघ आ गई पर उस पक्षी ने पूरी कथा सुन
ली। उसी पक्षी का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि[घ] के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि जी ने यह
कथा गरुड़ जी को सुनाई। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा
अध्यात्म रामायण के नाम से प्रख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का सर्वप्रथम
रामायण माना जाता है।
हृदय परिवर्तन
हो जाने के कारण एक दस्यु से ऋषि बन जाने तथा ज्ञानप्राप्ति के बाद वाल्मीकि ने
भगवान श्री राम के इसी वृतान्त को पुनः श्लोकबद्ध किया। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा
श्लोकबद्ध भगवान श्री राम की कथा को वाल्मीकि रामायण के नाम से जाना जाता है।
वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है तथा वाल्मीकि रामायण को आदि रामायण के नाम से भी
जाना जाता है।
देश में विदेशियों की सत्ता हो जाने के
बाद देव भाषा संस्कृत का ह्रास हो गया और भारतीय लोग उचित ज्ञान के अभाव तथा
विदेशी सत्ता के प्रभाव के कारण अपनी ही संस्कृति को भूलने लग गये। ऐसी स्थिति को
अत्यन्त विकट जानकर जनजागरण के लिये सन्त तुलसीदास ने एक बार फिर से राम की पवित्र
कथा को देसी भाषा में लिपिबद्ध किया। सन्त तुलसीदास ने अपने द्वारा लिखित राम की कल्याणकारी कथा से
परिपूर्ण इस ग्रंथ का नाम रामचरितमानस रखा। सामान्य रूप से रामचरितमानस को तुलसी
रामायण के नाम से जाना जाता है।
कालान्तर में भगवान श्री राम की कथा को
अनेक विद्वानों ने अपने अपने बुद्धि,
ज्ञान तथा मतानुसार अनेक बार लिखा है। इस तरह से अनेकों रामायणों की
रचनाएँ हुई हैं
जहाँ
तुलसीदास जी ने उपरोक्त वर्णन लिखकर रामचरितमानस को समाप्त कर दिया है वहीं आदिकवि
वाल्मीकि अपने रामायण में उत्तरकाण्ड में रावण तथा हनुमान के जन्म की कथा, सीता का निर्वासन,
राजा नृग, राजा निमि, राजा
ययाति तथा रामराज्य में कुत्ते का न्याय की उपकथायें, लवकुश
का जन्म, राम के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान तथा उस
यज्ञ में उनके पुत्रों लव तथा कुश के द्वारा महाकवि वाल्मिक रचित रामायण गायन,
सीता का रसातल प्रवेश,[23] लक्ष्मण का
परित्याग का भी वर्णन किया है। वाल्मीकि रामायण में उत्तरकाण्ड का समापन राम के
महाप्रयाण के बाद ही हुआ है।
भारतीय
शास्त्रीय नृत्यों में रामकथा
भारतीय शास्त्रीय यथा; भरतनाट्यम्, कथकली, कथक, ओड़िसी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम, कुचिपुड़ी,
सत्रिया आदि नृत्य रूपों में रामकथा पर आधारित कई नृत्य नाटिकाओं का निर्माण किया
गया। विशेषकर कत्थक के गुरुओं ने राम की शक्ति पूजा, जटायु
बद्ध, राम-रावण युद्ध आदि प्रसंगों को सुंदरता से नृत्य
नाटिका में संयोजा है। भरत नाट्यम और मोहिनीआट्टम में तो पारंपरिक रूप से ही
रामकथा पर आधारित कई प्रसंग अभिनीत होते हैं। सत्रिया नृत्य में आचार्य शंकरदेव ने
रामविजय नाटक की रचना की। सत्रिया नृत्य के कई कलाकारों ने रामविजय के विभिन्न
प्रसंगों को नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया है।
भारतीय लोक नृत्यों में रामकथा
लोक परंपरा की रामलीला के अलावे विभिन्न लोक नृत्य रूपों में
रामकथा को चित्रित किया गया है। पूर्वोत्तर भारत के कारबी जनजाति द्वारा प्रस्तुत
साबीअलून, राभा जनजाति का भारी
गान, राजवंशी समुदाय के कुषाण गान आदि नृत्य नाटिकाएँ रामकथा
के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित है। अवध के
होली नृत्य गीतों में रामकथा के विभिन्न रूपों की बानगी देखी जा सकती है।
रामकथा की प्रदर्शन परम्परा में सबसे समृद्ध विधा पारम्परिक
रामलीला ही है - रामलीला के प्रवर्तक का सुनिश्चित नाम जान पाना बड़ा कठिन है।
बाल्मीकि रामायण में "कुरु राम कथा पुण्याम् श्लोक बद्धां मनोरमाम्"
(बालकाण्ड द्वितीय सर्ग श्लोक-३६) अर्थात "राम की मनोरम पुण्यमयी कथा का गान
करो" कह कर आदि कवि ने राम कथा के गायन का स्वरुप निर्धारित किया था। लेकिन
रामलीला के उद्भव में मध्ययुगीन नाट्य परम्परा झाँकियों, पंचरात्र संहिताओं
शोभायात्राओं, भाषा नाटकों आदि की प्रेरणा रही है। मध्ययुग
में समस्त कलाओं यथा मूर्ति कला, चित्रकला, संगीत कला आदि के द्वारा धर्म के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया गया। ऐसा
लगता है कि इन्हीं परिस्थितियों में रामलीला का उद्भव और विकास हुआ। हरिवंश पुराण
में रामायण के नाट्य स्वरुप के प्रस्तुत करने की बात कही गई है - "रामायणं
महाकाव्यं उद्देश्यं नाटकी कृतं" उत्तर रामचरित, बाल
रामायण, प्रसन्न राघव, हनुमन्नाटक आदि
के द्वारा रामकथा का नाट्य रुपान्तरण किया गया। महाराष्ट्र की ललित कलाओं तथा असम
और बंगाल की रामयात्राओं में राम कथा प्रस्तुत की गई। अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध ग्रंथ
"सन्देश रासक" के कवि अद्दहमाण या अब्दुल रहमान के रामायण के अभिनय की
बात कही है। गुरु नानक की "झासा दी वार" में रामकथा के अभिनय का उल्लेख
है। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास के पूर्व से ही रामकथा के अभिनय की एक प्राचीन
परम्परा परीलक्षित होती है। वह पारम्परिक शैली रामचरित मानस के आविर्भाव से न केवल
समृद्ध हुई अपितु कालान्तर में रामचरित मानस ही इस पारम्परिक रामलीला का आधार
ग्रन्थ बन गया है।
कविता सिंह चौहान
एम.ए.
नाट्यकला एवं फ़िल्म अध्ययन विभाग